Bajrang aur Ali | Short Review | Sajeev Sarathie
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जब छोटा था तो घर में टी वी का होना एक बड़ी बात हुआ करता थी, मोहल्ले में जिसके भी घर नया टी वी आता था पूरा मोहल्ला इस हफ्ते संडे की फिल्म उस घर पे देखता था, जब मेरे घर वेस्टर्न कंपनी का पहला ब्लैक एन्ड वाइट टीवी आया तो उस हफ्ते मेरे घर पर पैक्ड हाउस में देखी गयी थी पंडित और पठान. जब मैंने बजरंग और अली सुना तो जेहन में पंडित और पठान की यादें घूम गयी. उस दौर में ऐसी साम्प्रदायिक एकता को बढ़ावा देने वाली बहुत सी फ़िल्में बना करती थी, और लोग बड़े चाव से देखा भी करते थे, आज मैं बहुत लोगों को सुनता हूँ कहते हुए कि हिन्दू मुस्लिम एकता जैसी कोई चीज़ कभी एक्सिस्ट ही नहीं करती थी, पर मैं इसे नहीं मान सकता क्योंकि ऐसी दोस्तियों की ढेरों कहानियां मेरे व्यक्तिगत अनुभव में सलंग्न है.
तो क्या बजरंग और अली एक कल्ट फिल्म है, नहीं क्योंकि ये फिल्म बहुत ही ड्रामेटिक है अपने ट्रीटमेंट में. आपको लगेगा जैसे कोई थिएटर देख रहे हैं आप. कहानी इंदौर में सेट है और इंदौर शहर भी यहाँ एक किरदार की तरह आता है. लीड रोल्स में दिखे जयवीर और सचिन पारीख दोनों का ही काम बहुत बढ़िया है. विशेषकर जयवीर अपने संवाद अदायगी में ड्रामेटिक होते हुए भी कंवेंसिंग लगते हैं. दोस्ती के आलावा एक लव स्टोरी को भी स्थान दिया गया है पर ये वाला ट्रेक बेअसरदार है. जयवीर अभिनेता अच्छे हैं पर उनके निर्देशन का अंदाज़ पुराने ढर्रे का है. लेकिन इस फिल्म की चर्चा इसलिए भी बेहद ज़रूरी है क्योंकि आजकल जहाँ हर कोई सिर्फ नफ़रत को बेच कर जेबें भर रहा है इस फिल्म के मेकर्स ने सांप्रदायिक सद्भावना और दोस्ती के कोमल भावों को एक बढ़िया और मार्मिक कहानी में पिरो कर पेश करने की हिम्मत दिखाई है.
बजरंग और अली आप जरूर देखें खासकर अगर आपने एक राम रहीम दोस्ती जैसी घटनाएं अपने जीवन में देखी हों तो आप इससे रेलेट करेगें और अपने बच्चों को भी दिखाएं ताकि वो भी खुले दिमाग से अपने दोस्त चुन सकें, ये फिल्म टेक्निकली बहुत अच्छी न होने के बावजूद सोलफुल है, और दिल से बनायीं गयी है अच्छी नीयत के साथ.
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